वसंत (कविता)

यों ही हवा में झुके हुए, हवा को ख़त्म कर देना है...
सड़कों को कुहरे के गहरे तहख़ाने में खो देना है।
कभी-कभी एकाएक बारिश की घनी झागदार झड़ी देख
या लू-पिटी नदी की तलफती आग सूँघ
यों ही महसूस कर लेना है
जीवन।

कई दिनों बाद खुलती सुबह देख, चकित हो जाना है
(सुबह अभी होती है।)
धूप और ठंडक ओढ़ लेना है
आकाश ताकते-ताकते, शिथिल हो मुँद जाना है,
यों ही चलते-चलते ढल जाना है—
क्षितिज की गहरी अनुभूति में जड़ीभूत
आदिम... निरानंद।
फिर किसी ख़ास चौराहे पर
धूल कुछ ज़्यादा उड़ती दिखे
मौसम कुछ ज़्यादा उदास हो जाए
और पत्तों की राहत-भरी झरझराहट...
तो समझ लेना है यों ही—
सुनसान को गले में बाँधे
हवा में झरता... सदियों का
नीरस वसंत।


रचनाकार : दूधनाथ सिंह
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