सब बेपहचान
हवा भी अंधी।
जल पगडंडी!
तुमसे भी धँसना ही
धँसना, बेथाह!
पियानो की धुन में
लिपटे आकार!
तुम्हारे भी इतने...
क्रूर... विचार!
पतझरी फूल-गात!
तुम भी इतने उदासीन...
इतने उदास... आह—
सब बेपहचान
हवा भी अंधी।
अभिसारी पक्षि-शावक-मन!
तुम्हारा भी उड़ना ही उड़ना
मृगांक-कस्तूरी दिशाओं में
शेष
हर छटपटाहट के बाद
घृणा का असह्य तूफ़ान
वसंत! तुम्हारे ही प्रति—
दिन-दिन तुम्हारी ही हत्या के प्रति...
तब क्या करूँ लेकर
युग-भर का इतना... इतना
मृतांधकार! आह...
सब बेपहचान
हवा भी अंधी।
सब...

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