विस्मृति का फूल (कविता)

...मैं हूँ
मैं हूँ किसी का
...हूँ किसी का
सपना
देखा हुआ अनदेखा
अपना

स्मृति में जैसे बसा-किसी की
विस्मृति का फूल
बन, खिलने की हसरत में
दिन-रात तपना
पहरों-पहरों, देह की देहरी पर
रह-रहकर अंगार-सा
दहकना


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