वृष्टि (कविता)

वर्षा,
जिसने कर्षक को आकर्षा।
स्वस्थ, मस्त बूँदों ने आकर,
विपदग्रस्त धरती को स्पर्शा।
सहसा जलमय हुए झील, रत्नाकर,
नाले, नदियाँ, निर्झर!
यकसाँ जन-जन का मन हर्षा।
झरर-झरर-झर
ये संघर्षातुर झड़ियाँ, या
झन-झन-झन बजती-सी कड़ियाँ;
व्योम-समर-भू में झूमे जो
मत्त मेघ के महासैन्य को वाताहत करने को उद्यत,
धरती जिसकी लू से झुलसी थी
वह पुनः गुरिल्ला दल-सी—
बही हवा दुर्धर्षा!
ऐसी वर्षा!
हहर-हहर कर—
बाढ़ आ गई क्षुद्र पीन नद में भी,
ढहे कगारे जीर्ण-समाज-व्यवस्था-से, गतिहारे आदर्शों से।
गेहूँ-सा मटमैला फैला पात्र नदी का।
दूर-दूर तक इंक़लाब-से बद्दल जिनका पार न दीखा।
कीच मचा,
औ’
धारा जो कि स्वर्ग से गिरती
धारा आज धरा से मिलती, तभी उसे मिलता छुटकारा।
गर्म श्वास यों निकले नर्म रसा से—
निःक्षत्रिय करने को मानो आज उठ खड़ी
सरोष जनता ले कर फरसा,
ऐसी वर्षा!


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