किसी वीरान खंडहर का धन हूँ
किसी जन्मांध का काला स्वप्न हूँ
आज़ादी के लिए छटपटाती इच्छाओं का कोष्ठक हूँ
मैं ख़ुद ही अपनी उमंगों पर लगा पूर्ण विराम हूँ
वह कवि हूँ जो अपनी कविताओं का भ्रूण हत्यारा है
वह योद्धा हूँ जो बिना लड़े हारा है
वह चालकरहित जहाज़ हूँ जो बे-किनारा है
वह तारा जो ख़ुद क़िस्मत का मारा है
बहती नदी जिसका सारा पानी खारा है
इष्ट की चाह में प्राप्य का हंता हूँ
मेरी आँखों पर चढ़ा है मेरा अदृष्ट
मेरी चेतना निर्वात में बदल चुकी है
इक उम्र थी जो गल चुकी है
दुनिया से घबराकर जब भी अपने में लौटता हूँ
ख़ुद को किसी अंधकूप में पाता हूँ
शिखंडी की नींद में जागता हूँ
गांधारी के जाग में सो जाता हूँ
बाहर से धृतराष्ट्र
भीतर से अश्वत्थामा हो जाता हूँ
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