जीवन में अभिलाषा लेकर,
घूम रहा हूँ मैं मग में।
पथ भी न जाने पथरीला,
काँटे चुभते हैं पग में।
फिर भी दीप जलाकर मैं,
मधुर रागिनी गाता हूँ।
कोई प्रतीक्षा में होगा बस,
यही सोचकर आता हूँ।
दो नयनों में करुण वेदना,
और हृदय की व्याकुलता।
आगे आगे लहर सिंधु की,
पीछे नाव की असफलता।
असफलता को काट काट कर,
सीढ़ी नई बनाता हूँ।
कोई प्रतीक्षा में होगा बस,
यही सोचकर आता हूँ।
आशाओं के मन में मैंने,
कुसुम हैं श्रम के ही बोए।
नित उर पर पत्थर रखकर,
स्वप्न वो मेरे ही रोए।
फिर भी जोड़ जोड़ स्वप्नों को,
विजय सेतु ही बनाता हूँ।
कोई प्रतीक्षा में होगा बस,
यही सोचकर आता हूँ।

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