ये आँसू बे-सबब जारी नहीं है,
मुझे रोने की बीमारी नहीं है।
न पूछो ज़ख़्म-हा-ए-दिल का आलम,
चमन में ऐसी गुल-कारी नहीं है।
बहुत दुश्वार समझाना है ग़म का,
समझ लेने में दुश्वारी नहीं है।
ग़ज़ल ही गुनगुनाने दो कि मुझ को,
मिज़ाज-ए-तल्ख़-गुफ़्तारी नहीं है।
चमन में क्यूँ चलूँ काँटों से बच कर,
ये आईन-ए-वफ़ादारी नहीं है।
वो आएँ क़त्ल को जिस रोज़ चाहें,
यहाँ किस रोज़ तय्यारी नहीं है।
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