ये ऐसा क्यूँ होता है!
यादों के बक्से में,
बन्द हो जाता है,
हर रोज़ एक नया दिन!
पल हर पल कुछ न कुछ,
बस यूँ ही आस पास!
ख़्वाबों के अनगिनत पन्नों को,
उनके मटमैले से हर्फ़ों को,
खोलकर यूँ ही हर रोज़,
बैठा करती है लम्बी रात,
हर दफ़ा वही पुनरावृत्ति,
ये ऐसा क्यूँ होता है?
हम भी बदलते हैं,
यूँ ही साथ-साथ पल-पल,
और हमेशा टाल जाते हैं,
उस अनवरत बदलाव को,
अटूट सत्य के अस्तित्व को!
कभी-कभी याद आता है,
गलियों में खेलता वो बचपन,
वो हवाओं में महकता यौवन,
याद आते हैं वे सारे क्षण,
दुलार प्यार और तिरस्कार भी,
वो सारा दुर्लभ अपनापन!
और फिर बन्द होने लगती हैं,
ज्वार भाटे सी बोझिल पलकें!
रूह के धरातल पर तो,
वो सब याद आता जाता है,
जो अब तलक होता रहा,
यादों के बक्से में बंद हो जाता है
हर रोज़ एक नया दिन!
ये ऐसा क्यूँ होता है?
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