ये बार-ए-ग़म उठा कर देखते हैं (ग़ज़ल)

ये बार-ए-ग़म उठा कर देखते हैं
तुम्हें भी आज़मा कर देखते हैं

बड़ा है ज़ो'म इस पागल हवा को
दिए हम भी जला कर देखते हैं

है मुमकिन ज़िंदगी आए समझ अब
दोबारा सर खपा कर देखते हैं

हमारे ज़ख़्म का क्या हाल है वो
गले हम को लगा कर देखते हैं

यक़ीं दुनिया पे फिर होने लगा है
चलो फिर चोट खा कर देखते हैं

पिघलती ही नहीं अश्कों से दुनिया
ज़रा सा मुस्कुरा कर देखते हैं

मुख़ालिफ़ इश्क़ के तुम हो जो 'वाहिद'
तुम्हारी नस दबा कर देखते हैं


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