ये हरे वृक्ष
यह नई लता
खुलती कोंपल
यह बंद फलों की कलियाँ सब
खुलने को, खिलने को, झुकने को होतीं
स्वयं धरा पर।
धूल उड़ रही,
धूल बढ़ रही,
जबरन रोकेगी यह राह
अपनी धाक जमा कर
ज़ोर जमा कर आँधी।
तोड़ रही कुछ हरे वृक्ष
सब नई लता—
ये परवश हैं
इस धरती की बात रही यह
कहीं उगा दे
ऊँचे पर, नीचे पर, पत्थर पर
पानी में।
ये उपकारी हरे वृक्ष
यह नई लता
खुलती कोंपल
खुलने पर, खिलने पर, पकने पर
झुक जाएँगी स्वयं धरा पर
फिर से उगने को कल
नए रूप में।
साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
सहयोग कीजिएरचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें