ये कैसा अपनापन है (कविता)

कौन कहता है कि, बेटी तो पराया धन है?
पूछो उससे कि तेरा, ये कैसा अपनापन है।।
पूछो उससे कि....

अपनी जनी को ही तू पराया कैसे कहता है?
क्या उसके तन लहू किसी और का ही बहता है?
ब्याहते ही उसे, क्यों मन में ये परिवर्तन है?
पूछो उससे कि तेरा ये कैसा अपनापन है।।
कौन कहा है कि....

जना तूने ही जिसे, पाला, व ख़ुद पढ़ाया है,
बचपन से साथ रही जैसे कि परछाया है।
यौवन आते ही कड़ुवाहट क्यों बस गई मन है?
पूछो उससे कि तेरा कैसा ये अपनापन है।।
कौन कहता है कि...

वो भी बेटी ही तो है, जिसने तुझ बेटे को जना,
जिसका पय पीके, आज तू पुनः है बाप बना।
फि क्यों बेटी लगे न तुझको कि अपना धन है?
पूछो उससे कि तेरा ये कैसा अपनापन है।।
कौन कहता है कि...

मरेगा गर, न कोई बेटा साथ आएगा,
रोएगा, रस्म भर जग की महज़ निभाएगा।
तो फिर क्यों फ़र्क़ बेटा-बेटी में तेरे मन है?
पूछो उससे कि तेरा ये कैसा अपनापन है।।
कौन कहता है कि...

बेटी तो ब्याह कर भी प्यार तुझे करती है,
वो तेरी आन के लिए ही जीती-मरती है।
फिर क्यों लगता न तेरे दिल की वो कोई धड़कन है?
पूछो उससे कि तेरा ये कैसा अपनापन है।।
कौन कहता है कि बेटी तो पराया धन है?
पूछो उससे कि तेरा ये कैसा अपनापन है।।


लेखन तिथि : नवम्बर, 2020
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