ये ज़माना (कविता)

क्या कहूँ इस ज़माने को मैं,
हर तरफ़ एक नया अफ़साना है,
कभी सच्चाई के नक़ाब में,
कभी झूठ का तराना है।

दिल की बात कहने से भी अब,
लोग कतराने लगे हैं,
अपने ही साए से डरकर,
अपनों से घबराने लगे हैं।

इस भीड़ में हर चेहरा,
एक नक़ाब में छुपा हुआ है,
क्या कहूँ इस ज़माने को मैं,
ये तो बस एक तमाशा हुआ है।

आँखों में अब ख़्वाब नहीं,
सिर्फ़ सच्चाई का ज़हर है,
क्या कहूँ इस ज़माने को मैं,
यहाँ हर दिल बेकदर है।


लेखन तिथि : 23 अक्टूबर 2024
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