साहित्य रचना : साहित्य का समृद्ध कोष
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दिल्ली, दिल्ली
1955
तुम्हारे होंठों को देखने से पहले मैं नहीं जान पाया था कि गुलाब इतना सुंदर क्यों होता है तुम्हारे होंठों को छूने से पहले मैं नहीं जान पाया था कि गुलाब की पंखड़ियाँ इतनी नाज़ुक क्यों होती हैं लेकिन तुम्हारे होंठों को चूमने से पहले मैं जान गया था कि ज़िंदगी का स्वाद आख़िर इतना कसैला क्यों है...
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