ज़िंदगी का ठीक है कुछ तय-सा पैमाना नहीं होता (ग़ज़ल)

ज़िंदगी का ठीक है कुछ तय-सा पैमाना नहीं होता,
किंतु जैसे लोग मर जाते हैं, मर जाना नहीं होता।

कुछ तो फैलें होठ, आँखों में भी थोड़ी-सी चमक आए,
सख़्त होठों में ही मुस्काना भी मुस्काना नहीं होता।

उसकी ख़ुश्बू दूर थोड़ी दूर तक चीज़ों को महकाए,
सिर्फ़ अपने घर को महकाना ही महकाना नहीं होता।

उसमें ख़ुश्बू है अगर तो कुछ न कुछ रह जाएगी कल भी,
फूल का डाली पे मर जाना ही मर जाना नहीं होता।

कितनों में संघर्ष, सपने, बेबसी ये सब भी होते हैं,
शायरों वाला सभी आँखों में मयख़ाना नहीं होता।

जिस्म के अंदर भी उसका दूर तक फैलाव होता है,
सिर्फ़ बाहर भर का वीराना ही वीराना नहीं होता।


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